“दास्तान-ए-जान-ए-आलम”
अंग्रेजों के फैलाए भ्रमों और गलतफहमियों का पर्दाफाश..
लखनऊ/ नवाब वाजिद अली शाह अवध के आखिरी बादशाह थे, जिनका शासनकाल 1847 से 1856 तक था। वे एक विलक्षण शासक थे, जो अपनी साहित्यिक और सांस्कृतिक रुचियों के लिए अधिक जाने जाते थे, बजाय एक युद्धप्रिय राजा के। वाजिद अली शाह का जन्म 30 जुलाई 1822 को लखनऊ में हुआ था और वे अवध के नवाब अमजद अली शाह के पुत्र थे। वाजिद अली शाह की शासनकाल की समाप्ति और अवध की ब्रिटिश साम्राज्य में विलय एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना थी, जो भारतीय इतिहास में कई दृष्टिकोणों से महत्त्वपूर्ण है
वाजिद अली शाह ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा में अरबी, फारसी, उर्दू, और हिंदुस्तानी साहित्य में गहन अध्ययन किया। वे संगीत, नृत्य, और कविता के प्रति अत्यधिक रुचि रखते थे, जो आगे चलकर उनके जीवन का प्रमुख हिस्सा बना। उन्होंने विभिन्न कला रूपों में महारत हासिल की, जिसमें संगीत, नृत्य, कविता, और नाटक शामिल थे।
वाजिद अली शाह के जीवन व असल किरदार को लेकर लखनऊ, हजरतगंज में ऐतिहासिक साहू थिएटर में “दास्तान-ए-जान-ए-आलम” एक अलग ही अंदाज में पेश हुआ।
खास अंदाज में दास्तानगोइ (किस्सागोई) के लिए अपनी अलग पहचान रखने वाले डॉ0 हिमांशु बाजपेयी और डॉ0 प्रज्ञा शर्मा ने अवध के वाजिद अली शाह के जीवन से जुड़ी बेहद अहम रोचक जानकारियों को अपने अनूठे अंदाज में प्रस्तुत किया। दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी और प्रज्ञा शर्मा ने बताया कि दास्तान (किस्सा/ कहानी) को जबानी बयान करने का ये एक नया मीडियम शुरू हुआ है, अच्छी दास्तान आपके माइंड को पकड़ लेती है और छोड़ती ही नहीं। इसमें लोगों की काफी रुचि है।
उन्होने बताया कि 30 जुलाई 1822 में जनाबे आलम ने जन्म लिया और मिर्जा वाजिद अली बहादुर के नाम से ख्याति मिली। वह बचपन से ही रागिनी का लुत्फ लेते थे। उनके शासनकाल में अवध की राजधानी लखनऊ एक सांस्कृतिक और साहित्यिक केंद्र बन गई थी। उन्होंने कई संगीत नाटक लिखे और प्रस्तुत किए, जिनमें 1842 में लिखे “राधा-कन्हैया का किस्सा” और “इंद्र सभा” प्रमुख हैं। ये नाटक उस समय की साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
हालांकि वाजिद अली शाह को एक शासक के रूप में कमजोर माना गया, उनकी सांस्कृतिक धरोहर अद्वितीय है। उन्होंने लखनऊ की गंगा-जमुनी तहज़ीब को न केवल बनाए रखा बल्कि उसे और समृद्ध किया। वे “ठुमरी” संगीत शैली के जनक माने जाते हैं, और उनका योगदान भारतीय शास्त्रीय संगीत में अमूल्य है।
उनकी काव्य और संगीत रचनाएँ आज भी उत्तर भारत के संगीत और सांस्कृतिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा हैं। वे एक काव्य प्रेमी थे और उन्होंने “अख़्तर” तखल्लुस से कविताएँ लिखीं। उनकी कविताओं और गीतों में प्रेम, भक्ति, और जीवन की गहन समझ झलकती है।
दूसरी ओर, 1847 में किस तरह से मजबूरी में उन्हें अवध की सत्ता संभालनी पड़ी और उसके बाद से अंग्रेजों ने किस तरह से उनके साथ, लगातार गलत सलूक किया, इस हकिकत को भी जनना को जानना बहुत जरूरी है।
वाजिद अली शाह के शासनकाल का सबसे विवादास्पद और दुखद अध्याय 1856 में तब शुरू हुआ जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अवध पर कब्जा करने का निर्णय लिया। ब्रिटिश अधिकारियों ने वाजिद अली शाह पर कुशासन और भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और उन्हें सत्ता से हटा दिया। यह आरोप वस्तुतः सत्ता प्राप्त करने के लिए गढ़ा गया था, क्योंकि अवध उस समय उत्तर भारत के सबसे समृद्ध और महत्वपूर्ण राज्यों में से एक था।
वाजिद अली शाह को लखनऊ से हटाकर कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) भेज दिया गया, जहां उन्हें नजरबंद कर दिया गया। उनके राज्य का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की पकड़ को और मजबूत किया। वाजिद अली शाह ने अपने राज्य को बचाने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन वे असफल रहे। उन्हें अपने राज्य से दूर एक जीवन बिताने के लिए मजबूर किया गया।
डॉ. हिमांशु का कहना है कि इस दास्तान को सालों की मेहनत और शोध के बाद तैयार किया है। इसका उद्देश्य वाजिद अली शाह के जीवन और उनके समय का लखनवी दृष्टिकोण प्रस्तुत करना है, साथ ही अंग्रेजों के फैलाए गए भ्रमों और गलतफहमियों को दूर करना भी है।
__(शाश्वत तिवारी)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है)