बात फिल्म इंड्रिस्ट्री के पहले “एंटी-हीरो” अशोक कुमार की….
@शाश्वत तिवारी
कलकत्ता से वकालत पढ़े अशोक कुमार को फिल्में देखना बहुत पसंद था। वो क्लास के बाद वे अपने दोस्तों के साथ थियेटर चले जाते थे। तब आई हीरो के. एल. सहगल की दो फिल्मों से वे बहुत प्रभावित हुए – ‘पूरण भगत’ (1933) और ‘चंडीदास’ (1934)। वे तत्कालीन बंगाल में आने वाले भागलपुर में जन्मे थे। उनके पिता कुंजलाल गांगुली जाने माने वकील थे और मां गौरी देवी एक धनी बंगाली परिवार से थीं।
मध्य प्रदेश में खंडवा के बेहद धनी गोखले परिवार ने उनके पिता को अपना निजी वकील बनाकर बुलाया, तब से उनका पूरा परिवार खंडवा में ही बस गया।
शुरू में वे एक्टर नहीं डायरेक्टर बनना चाहते थे। क्योंकि उन दिनों एक्टिंग को अच्छा पेशा नही माना जाता था।
उनकी छोटी बहन के पति शशधर मुखर्जी, हिमांशु राय की कंपनी बॉम्बे टॉकीज में साउंड इंजीनियर थे और प्रोडक्शन के अन्य विभागों से जुड़े थे। वे अशोक कुमार को राय के पास लेकर गए, राय ने उन्हें एक्टर बनने के लिए कहा लेकिन अशोक ने मना कर दिया। उन्हें टेक्नीकल डिपार्टमेंट में काम करना था। राय ने उन्हें कंपनी में रख लिया, अशोक कुमार बाद में डायरेक्शन में भी असिस्ट करने लगे, सब एक्टर्स को उनके सीन समझाते थे।
बतौर एक्टर अपनी पहली ही फिल्म ‘जीवन नैया’ (1936) में अशोक कुमार ने ख़ुद एक गाना गाया था। इसके बोल थे – “कोई हमदम न रहा, कोई सहारा न रहा”। बाद में उनके भाई किशोर कुमार ने 1961 में फिल्म ‘झुमरू’ में यही गाना रिवाइव किया। वे फिल्म के हीरो थे, म्यूजिक भी कंपोज किया था और ये गाना भी उन्होंने अपनी आवाज में गाया था। ‘कोई हमदम न रहा’ – अशोक कुमार की आवाज़ मेंः
‘जीवन नैया’ की शूटिंग के दौरान हिमांशु राय की बीवी यानी फिल्म की हीरोइन देविका रानी हीरो नजमुल हसन के साथ भाग गईं। बाद में दोनों में झगड़ा हो गया तो लौट आईं। राय ने अशोक कुमार से हीरो बनने के लिए कहा, लेकिन वे नहीं माने। बहुत समझाया और राय ने कहा कि वे ही उन्हें इस मुसीबत से निकाल सकते हैं। उन्हें यकीन दिलाया कि उनके यहां अच्छे परिवारों वाले, शिक्षित लोग ही एक्टर होते हैं तब अशोक माने और ये उनकी डेब्यू फिल्म साबित हुई।
जब अशोक हीरो बने तो उनके घर खंडवा में कोलाहल मच गया। उनकी तय शादी टूट गई, मां रोने लगीं। उनके पिता नागपुर गए, वहां अपने कॉलेज के दोस्त रविशंकर शुक्ल से मिले जो तब मुख्य मंत्री थे। उन्होंने स्थिति बताई और अपने बेटे को कोई नौकरी देने की बात कही। शुक्ल साहब ने उनको अशोक कुमार के लिए दो नौकरियों के ऑफर लेटर दिए। जिसमे से एक था आय कर विभाग के अध्यक्ष का पद जिसकी महीने की तनख्वाह 250 रुपये थी।
पिता, अशोक से मिले और एक्टिंग छोड़ने को कहा, अशोक हिमांशु राय के पास गए और उन्हें नौकरी के कागज़ दिखाए और कहा कि उनके पिता बाहर खड़े हैं और उनसे बात करना चाहते हैं। राय ने अकेले में उनके पिता से बात की, थोड़ी देर बाद उनके पिता उनके पास आए और नौकरी के कागज़ फाड़ दिए, उन्होंने अशोक से कहा, “वो (हिमांशु राय) कहते हैं कि अगर तुम यही काम करोगे तो बहुत ऊंचे मुकाम तक पहुंचोगे। तो मुझे लगता है तुम्हें यहीं रुकना चाहिए।
उन्होंने न तो थियेटर किया था, न एक्टिंग का कोई अनुभव था। ऐसे में अशोक कुमार के अभिनय में पारसी थियेटर का लाउड प्रभाव नहीं था। यही उनकी खासियत बनी। वे हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार थे और उनकी एक्टिंग एकदम नेचुरल थी। जो आज तक एक्टर्स हासिल करने की कोशिश करते हैं। इसके अलावा हिमांशु राय और देविका रानी ने भी उन्हें सबकुछ सिखाया। वे उन्हें अंग्रेजी फिल्में देखने के लिए भेजते थे। हम्प्री बोगार्ट जैसे विदेशी एक्टर्स को देखकर और उनकी स्टाइल व अपने विश्लेषण से अशोक ने अभिनय सीखा।
सुबह का नाश्ता वे ठाठ से करते थे, उनका कहना था कि एक्टर लोग पूरे दिन कड़ी मेहनत करते हैं और ब्रेकफास्ट दिन का सबसे महत्वपूर्ण भोजन है। इसी से पूरे दिन दृश्यों को करते हुए उनमें ऊर्जा बनी रहती थी।
उनका ज्यादा लोकप्रिय नाम दादामोनी पड़ा, हालांकि ये सही संबोधन नहीं था। मूल रूप से उन्हें दादामणि कहते थे लेकिन इसे मोनी/मुनि समझ लिया गया।
अपने समय में (1940 के बाद के वर्षों में) अशोक कुमार का क्रेज़ ऐसा था कि वे कभी-कभार ही घर से निकलते थे और जब भी निकलते तो भारी भीड़ जमा हो जाती और ट्रैफिक रुक जाता था। भीड़ दूर करने के लिए कभी-कभी पुलिस को लाठियां चलानी पड़ती थीं। रॉयल फैमिलीज़ और बड़े घरानों की महिलाएं उन पर फिदा थीं।
उनकी शादी शोभा देवी से हुई, दोनों ताउम्र खुशी-खुशी साथ रहे। पहली बार रिश्ते के लिए जब अशोक कुमार उन्हें देखने गए तो 18 साल के थे और शोभा सिर्फ 8 बरस की थीं। जब वे पहुंचे तो वे रोटियां बना रही थीं। बहुत तेज़ी से उन्होंने करीब 50 रोटियां बना दीं। अशोक कुमार इससे बहुत प्रभावित हुए. हालांकि उनकी शादी तब नहीं हुई। जब उन्होंने फिल्मों में काम शुरू कर दिया तब उनकी मां बहुत चिंतित हो गईं। एक दिन 1936 में उनके पिता ने उन्हें खंडवा बुलाया, वे रेलवे स्टेशन पर इंतजार कर रहे थे। बोले पूरे परिवार के साथ कलकत्ता जा रहे हैं। अशोक कुमार उनसे बहुत डरते थे, चुपचाप रवाना हो गए। रास्ते में किसी से पूछा तो मालूम चला कि शादी के लिए गए है। शादी से एक दिन पहले उन्होंने अपनी पत्नी को देखा, तब वे 15 साल की थीं और अशोक कुमार 25 के, अगले दिन 20 अप्रैल को शादी हुई।
आज नौकरीपेशा युवा अच्छे से सेटल होने या नौकरी में दो-तीन प्रमोशन लेने से पहले शादी नहीं करना चाहते हैं। लेकिन तब 1936 में भी अशोक कुमार भी ऐसा ही सोच रहे थे। वे शादी के लिए राजी नहीं थे, वे हर महीने 200 रुपये (जो तब बहुत बड़ी रकम थी) कमा रहे थे लेकिन चाहते थे कि 500 की तनख्वाह पर पहुंच जाएं उसके बाद ही शादी करें, लेकिन फिर मां की इच्छा थी तो शादी के लिए माने।
बताते चले की एंटी-हीरो के रोल बहुत से एक्टर्स ने किए, ‘मदर इंडिया’ (1957) में सुनील दत्त बिरजू बने, ‘अग्निपथ’ (1990) में अमिताभ बच्चन विजय दीनानाथ चौहान बने, दिलीप कुमार ने ‘अंदाज’ (1949) में दिलीप का रोल किया, शाहरुख ‘बाज़ीगर’ (1993) में अजय के रोल में थे. सूची लंबी है लेकिन हिंदी फिल्मों में सबसे पहले ये रोल करने का श्रेय अशोक कुमार को है। उन्होंने 1943 में आई ज्ञान मुखर्जी की फिल्म ‘किस्मत’ में पहली बार अपराधी का रोल किया था।
उनकी फिल्म ‘किस्मत’ पहली हिंदी फिल्म थी जिसने 1 करोड़ रुपये से ज्यादा कमाई की थी, ये पूरे एक साल सिनेमाघरों में दिन रात चली।
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